Monday, August 17, 2020

A BRIEF DESCRIPTION OF YOGA

 

संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार, को सम्यक्रूप से समझना बहुत सरल नहीं है। इन विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं में किस प्रकार ऐसा समन्वय हो सकता है कि ऐसा धरातल मिल सके जिस पर योग की भित्ति खड़ी की जा सके, यह बड़ा रोचक प्रश्न है परंतु इसके विवेचन के लिये बहुत समय चाहिए। यहाँ उस प्रक्रिया पर थोड़ा सा विचार कर लेना आवश्यक है जिसकी रूपरेखा हमको पतंजलि के सूत्रों में मिलती है। थोड़े बहुत शब्दभेद से यह प्रक्रिया उन सभी समुदायों को मान्य है जो योग के अभ्यास का समर्थन करते हैं।

 (पातञ्जल योग दर्शन के अनुसारयोगश्चित्तवृत्त निरोधः (1/2) अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।

(सांख्य दर्शन के अनुसारपुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते। अर्थात् पुरुष एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का स्व स्वरूप में अवस्थित होना ही योग है।

(विष्णुपुराण के अनुसारयोगः संयोग इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने अर्थात् जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग है।

(भगवद्गीता के अनुसारसिद्धासिद्धयो समोभूत्वा समत्वं योग उच्चते (2/48) अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।

(भगवद्गीता के अनुसारतस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् अर्थात् कर्त्तव्य कर्म बन्धक हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग है।

(आचार्य हरिभद्र के अनुसारमोक्खेण जोयणाओ सव्वो वि धम्म ववहारो जोगो मोक्ष से जोड़ने वाले सभी व्यवहार योग है।

(बौद्ध धर्म के अनुसारकुशल चितैकग्गता योगः अर्थात् कुशल चित्त की एकाग्रता योग है।

मन्त्र योग

'मंत्र' का समान्य अर्थ है- 'मननात् त्रायते इति मंत्रः' मन को त्राय (पार कराने वाला) मंत्र ही है। मंत्र योग का सम्बन्ध मन से है, मन को इस प्रकार परिभाषित किया है- मनन इति मनः। जो मनन, चिन्तन करता है वही मन है। मन की चंचलता का निरोध मंत्र के द्वारा करना मंत्र योग है। मंत्र योग के बारे में योगतत्वोपनिषद में वर्णन इस प्रकार है-

योग सेवन्ते साधकाधमा (अल्पबुद्धि साधक मंत्रयोग से सेवा करता है अर्थात मंत्रयोग अनसाधकों के लिए है जो अल्पबुद्धि है।)

मंत्र से ध्वनि तरंगें पैदा होती है मंत्र शरीर और मन दोनों पर प्रभाव डालता है। मंत्र में साधक जप का प्रयोग करता है मंत्र जप में तीन घटकों का काफी महत्व है वे घटक-उच्चारण, लय ताल हैं। तीनों का सही अनुपात मंत्र शक्ति को बढ़ा देता है। मंत्रजप मुख्यरूप से चार प्रकार से किया जाता है।

(1) वाचिक (2) मानसिक (3) उपांशु (4) अणपा।

हठयोग

हठ का शाब्दिक अर्थ हठपूर्वक किसी कार्य करने से लिया जाता है। हठ प्रदीपिका पुस्तक में हठ का अर्थ इस प्रकार दिया है-

हकारेणोच्यते सूर्यष्ठकार चन्द्र उच्यते।सूर्या चन्द्रमसो र्योगाद्धठयोगो भिधीयते॥

 का अर्थ सूर्य तथ  का अर्थ चन्द्र बताया गया है। सूर्य और चन्द्र की समान अवस्था हठयोग है। शरीर में कई हजार नाड़ियाँ है उनमें तीन प्रमुख नाड़ियों का वर्णन है, वे इस प्रकार हैं। सूर्यनाड़ी अर्थात पिंगला जो दाहिने स्वर का प्रतीक है। चन्द्रनाड़ी अर्थात इड़ा जो बायें स्वर का प्रतीक है। इन दोनों के बीच तीसरी नाड़ी सुषुम्ना है। इस प्रकार हठयोग वह क्रिया है जिसमें पिंगला और इड़ा नाड़ी के सहारे प्राण को सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कराकर ब्रहमरन्ध्र में समाधिस्थ किया जाता है। हठ प्रदीपिका में हठयोग के चार अंगों का वर्णन है- आसन, प्राणायाम, मुद्रा और बन्ध तथा नादानुसधान। घेरण्डसंहिता में सात अंगषटकर्म(शोधन), आसन(दृढ़ता), मुद्राबन्ध( स्थिरता), प्राणायाम(लाघवम),प्रत्याहार(धैर्य), ध्यान(प्रत्यक्षीकरण), समाधि(निर्लिप्तजबकि योगतत्वोपनिषद में आठ अंगों का वर्णन हैयम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि

कुंडलिनी योग

चित्त का अपने स्वरूप विलीन होना या चित्त की निरूद्ध अवस्था लययोग के अन्तर्गत आता है। साधक के चित्त् में जब चलते, बैठते, सोते और भोजन करते समय हर समय ब्रह्म का ध्यान रहे इसी को लययोग कहते हैं। योगत्वोपनिषद में इस प्रकार वर्णन है-

गच्छस्तिष्ठन स्वपन भुंजन् ध्यायेन्त्रिष्कलमीश्वरम् एव लययोगः स्यात

राजयोग

राजयोग सभी योगों का राजा कहलाया जाता है क्योंकि इसमें प्रत्येक प्रकार के योग की कुछ कुछ सामग्री अवश्य मिल जाती है। राजयोग महर्षि पतंजलि द्वारा रचित अष्टांग योग का वर्णन आता है। राजयोग का विषय चित्तवृत्तियों का निरोध करना है।

महर्षि पतंजलि के अनुसार समाहित चित्त वालों के लिए अभ्यास और वैराग्य तथा विक्षिप्त चित्त वालों के लिए क्रियायोग का सहारा लेकर आगे बढ़ने का रास्ता सुझाया है। इन साधनों का उपयोग करके साधक के क्लेशों का नाश होता है, चित्तप्रसन्न होकर ज्ञान का प्रकाश फैलता है और विवेकख्याति प्राप्त होती है है।

योगाडांनुष्ठानाद शुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरा विवेक ख्यातेः 

राजयोग के अन्तर्गत महिर्ष पतंजलि ने अष्टांग को इस प्रकार बताया है-

यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोष्टांगानि।

योग के आठ अंगों में प्रथम पाँच बहिरंग तथा अन्य तीन अन्तरंग में आते हैं।

उपर्युक्त चार पकार के अतिरिक्त गीता में दो प्रकार के योगों का वर्णन मिलता है-

(ज्ञानयोग

(कर्म योग

ज्ञानयोग, सांख्ययोग से सम्बन्ध रखता है। पुरुष प्रकृति के बन्धनों से मुक्त होना ही ज्ञान योग है। सांख्य दर्शन में 25 तत्वों का वर्णन मिलता है।

वैदिक संहिताओं के अंतर्गत तपस्वियों तपस (संस्कृतके बारे में ((कल | ब्राह्मण)) प्राचीन काल से वेदों में (९०० से ५०० बी सी ) उल्लेख मिलता है, जब कि तापसिक साधनाओं का समावेश प्राचीन वैदिक टिप्पणियों में प्राप्त है। कई मूर्तियाँ जो सामान्य योग या समाधि मुद्रा को प्रदर्शित करती हैसिंधु घाटी सभ्यता (सी.3300-1700 बी.सी. .) के स्थान पर प्राप्त हुईं है। पुरातत्त्वज्ञ ग्रेगरी पोस्सेह्ल के अनुसार," ये मूर्तियाँ योग के धार्मिक संस्कार" के योग से सम्बन्ध को संकेत करती है। यद्यपि इस बात का निर्णयात्मक सबूत नहीं है फिर भी अनेक पंडितों की राय में सिंधु घाटी सभ्यता और योग-ध्यान में सम्बन्ध है।

ध्यान में उच्च चैतन्य को प्राप्त करने कि रीतियों का विकास श्रमानिक परम्पराओं द्वारा एवं उपनिषद् की परंपरा द्वारा विकसित हुआ था।

योग: चित्त-वृत्ति निरोध:

तीन संस्कृत शब्दों के अर्थ पर यह संस्कृत परिभाषा टिका है। अई.के.तैम्नी इसकी अनुवाद करते है की,"योग बुद्धि के संशोधनों का निषेध हैयोग का प्रारंभिक परिभाषा मे इस शब्द का उपयोग एक उदाहरण है कि बौद्धिक तकनीकी शब्दावली और अवधारणाओं, योग सूत्र मे एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है; इससे यह संकेत होता है कि बौद्ध विचारों के बारे में पतंजलि को जानकारी थी और अपने प्रणाली मे उन्हें बुनाई. स्वामी विवेकानंद इस सूत्र को अनुवाद करते हुए कहते है,"योग बुद्धि (चित्त को विभिन्न रूपों (वृत्ति) लेने से अवरुद्ध करता है।

आठ अंग हैं:

यम (पांच "परिहार"): अहिंसा, झूठ नहीं बोलना, गैर लोभ, गैर विषयासक्ति और गैर स्वामिगत.

नियम (पांच "धार्मिक क्रिया"): पवित्रता, संतुष्टि, तपस्या, अध्ययन और भगवान को आत्मसमर्पण.

आसन: मूलार्थक अर्थ "बैठने का आसन" और पतंजलि सूत्र में ध्यान

प्राणायाम ("सांस को स्थगित रखना"): प्राण, सांस, "अयाम ", को नियंत्रित करना या बंद करना। साथ ही जीवन शक्ति को नियंत्रण करने की व्याख्या की गयी है।

प्रत्यहार ("अमूर्त"):बाहरी वस्तुओं से भावना अंगों के प्रत्याहार.

धारणा ("एकाग्रता"): एक ही लक्ष्य पर ध्यान लगाना.

ध्यान ("ध्यान"):ध्यान की वस्तु की प्रकृति गहन चिंतन.

समाधि (विमुक्ति):ध्यान के वस्तु को चैतन्य के साथ विलय करना। इसके दो प्रकार है - सविकल्प और अविकल्प। अविकल्प समाधि में संसार में वापस आने का कोई मार्ग या व्यवस्था नहीं होती। यह योग पद्धति की चरम अवस्था है।

 

इस संप्रदाय के विचार मे, उच्चतम प्राप्ति विश्व के अनुभवी विविधता को भ्रम के रूप मे प्रकट नहीं करता. यह दुनिया वास्तव है। इसके अलावा, उच्चतम प्राप्ति ऐसा घटना है जहाँ अनेक में से एक व्यक्तित्व स्वयं, आत्म को आविष्कार करता है, कोई एक सार्वभौमिक आत्म नहीं है जो सभी व्यक्तियों द्वारा साझा जाता है।

भगवद्गीता

भगवद गीता (प्रभु के गीत), बड़े पैमाने पर विभिन्न तरीकों से योग शब्द का उपयोग करता है। एक पूरा अध्याय (छठा अध्याय) सहित पारंपरिक योग का अभ्यास को समर्पित, ध्यान के सहित, करने के अलावा इस मे योग के तीन प्रमुख प्रकार का परिचय किया जाता है।

 

कर्म योग: कार्रवाई का योग। इसमें व्यक्ति अपने स्थिति के उचित और कर्तव्यों के अनुसार कर्मों का श्रद्धापूर्वक निर्वाह करता है।

भक्ति योग: भक्ति का योग। भगवत कीर्तन। इसे भावनात्मक आचरण वाले लोगों को सुझाया जाता है।

ज्ञाना योग: ज्ञान का योग - ज्ञानार्जन करना।

हठ योग: हठयोग योग, योग की एक विशेष प्रणाली है जिसे 15वीं सदी के भारत में हठ योग प्रदीपिका के संकलकयोगी स्वत्मरमा द्वारा वर्णित किया गया था।

हठयोग पतांजलि के राज योग से काफी अलग है जो सत्कर्म पर केन्द्रित है, भौतिक शरीर की शुद्धि ही मन की, प्राण की और विशिष्ट ऊर्जा की शुद्धि लाती है। केवल पतंजलि राज योग के ध्यान आसन के बदले, यह पूरे शरीर के लोकप्रिय आसनों की चर्चा करता है। हठयोग अपनी कई आधुनिक भिन्नरूपों में एक शैली है जिसे बहुत से लोग "योग" शब्द के साथ जोड़ते है।

तंत्र

तंत्र एक प्रथा है जिसमें उनके अनुसरण करनेवालों का संबंध साधारण, धार्मिक, सामाजिक और तार्किक वास्तविकता में परिवर्तन ले आते है।

तांत्रिक अभ्यास में एक व्यक्ति वास्तविकता को माया, भ्रम के रूप में अनुभव करता है और यह व्यक्ति को मुक्ति प्राप्त होता है।हिन्दू धर्म द्वारा प्रस्तुत किया गया निर्वाण के कई मार्गों में से यह विशेष मार्ग तंत्र को भारतीय धर्मों के प्रथाओं जैसे योग, ध्यान, और सामाजिक संन्यास से जोड़ता है, जो सामाजिक संबंधों और विधियों से अस्थायी या स्थायी वापसी पर आधारित हैं।

तांत्रिक प्रथाओं और अध्ययन के दौरान, छात्र को ध्यान तकनीक में, विशेष रूप से चक्र ध्यान, का निर्देश दिया जाता है। जिस तरह यह ध्यान जाना जाता है और तांत्रिक अनुयायियों एवं योगियों के तरीको के साथ तुलना में यह तांत्रिक प्रथाओं एक सीमित रूप में है, लेकिन सूत्रपात के पिछले ध्यान से ज्यादा विस्तृत है।

इसे एक प्रकार का कुंडलिनी योग माना जाता है जिसके माध्यम से ध्यान और पूजा के लिए "हृदय" में स्थित चक्र में देवी को स्थापित करते है।

योग का लक्ष्य

योग का लक्ष्य स्वास्थ्य में सुधार से लेकर मोक्ष (आत्मा को परमेश्वर का अनुभवप्राप्त करने तक है। जैन धर्मअद्वैत वेदांत के मोनिस्ट संप्रदाय और शैव सम्रदाय के अन्तर में योग का लक्ष्य मोक्ष का रूप लेता है, जो सभी सांसारिक कष्ट एवं जन्म और मृत्यु के चक्र (संसारसे मुक्ति प्राप्त करना है, उस क्षण में परम ब्रह्मण के साथ समरूपता का एक एहसास है। महाभारत में, योग का लक्ष्य ब्रह्मा के दुनिया में प्रवेश के रूप में वर्णित किया गया है, ब्रह्म के रूप में, अथवा आत्मन को अनुभव करते हुए जो सभी वस्तुओं मे व्याप्त है।

मीर्चा एलीयाडे योग के बारे में कहते हैं कि यह सिर्फ एक शारीरिक व्यायाम ही नहीं है, एक आध्यात्मिक तकनीक भी है। समाधि में निम्नलिखित तत्व शामिल हैं: वितर्क, विचार, आनंद और अस्मिता।

योग की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द, 'यूज' से हुई है। इसका मतलब है जुड़ना, कनेक्ट या एकजुट होना। यह सार्वभौमिक चेतना के साथ व्यक्तिगत चेतना का संघ है। योग 5000 साल पुराना भारतीय दर्शनशास्त्र है। इसका सबसे पहले प्राचीन पवित्र पाठ - ऋग्वेद में उल्लेख किया गया था (वेद आध्यात्मिक जानकारी, गीत और ब्राह्मणों द्वारा इस्तेमाल होने वाले अनुष्ठानों, वैदिक पुजारियों के ग्रंथों का एक संग्रह थे)

हजारों सालों से भारतीय समाज में योग का अभ्यास किया जा रहा है। योग करने वाला व्यक्ति अलग-अलग क्रियाएँ करता है जिसे आसन कहते हैं। योग उन लोगों को लाभ देता है जो इसका नियमित रूप से अभ्यास करते हैं।

योग में किए गए व्यायाम को 'आसन' कहा जाता है जो शरीर और मन की स्थिरता लाने में सक्षम हैं। योग आसन हमारे शरीर के अधिक वजन को कम करने और फिट रखने का सबसे सरल तरीका है।

योग की उत्पत्ति

योग का जन्म प्राचीन भारत में हजारों साल पहले हुआ था। सबसे पहले धर्म या विश्वास प्रणाली के जन्म से भी पहले। यह माना जाता है कि शिव पहले योगी या आदियोगी और पहले गुरु हैं। हजारों साल पहले हिमालय में कंटिसारोकर झील के तट पर आदियोगी ने अपने ज्ञान को महान सात ऋषियों के साथ साझा किया था क्योंकि इतने ज्ञान को एक व्यक्ति में रखना मुश्किल था। ऋषियों ने इस शक्तिशाली योग विज्ञान को दुनिया के विभिन्न हिस्सों में फैलाया जिसमें एशिया, उत्तरी अफ्रीका, मध्य पूर्व और दक्षिण अमेरिका शामिल हैं। भारत को अपनी पूरी अभिव्यक्ति में योग प्रणाली को प्राप्त करने का आशीष मिला हुआ है।

योग अलग-अलग तरह के होते हैं, जिनमें से कुछ योग के बारे में हम आपको नीचे बता रहे हैं

राज योगइसके तहत पदमासन, सूर्य नमस्कार जैसे आसन शामिल हैं, जिन्हें करने से शऱीर में फुर्ती रहती है।

भक्ति योगभक्ति योग मुख्य रुप से व्यक्ति के तनाव को कम करने और डिप्रेशन को भगाने में सहायक होता है।

कर्म योगकर्म योग करने से मुख्यत: मोटापे जैसी बीमारी नहीं होती है, इसमें मनुष्य की मांसपेशियां और दिमाग दोनों काम करते हैं।

हठ योगआमतौर पर पूरे दुनिया में हठ योग सबसे ज्यादा किया जाता है, इसमें कई तरह के प्रसिद्ध आसन जैसेभजुंगासन, ताड़ासन, त्रिकोणासन, कपालभांति, अनुलोग, विलोग, सूर्य नमस्कार जैसे कई व्यायाम शामिल होते हैं।

ज्ञान योगमुख्य रुप से मन की शांति के लिए किए जाने वाले योग इसमें शामिल हैं।

 

 

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